Thursday, June 19, 2008

Tilwada Cattle Fair



तिल तिल तिरोहित तिलवाडा का मेला


ये राजस्थान में ग्रामीण मेलों के शिखरों में से एक पर बदलते परिवेश की ग्रहण -छाया की कहानी है . लूनी नदी के सूखे पात में बारमेर के तिलवाडा गाँव में हर साल सजने वाला मल्लिनाथ मेला साल -दर -साल मुरझाने लगा है.
रंग-बिरंगे परिधान ओढे ग्रामीणों का रेला , कथा -क्लासिक के पन्नो से निकल जीवंत हुवे हो ऐसे हस्त -पुष्ट मवेशियों के झुंड और कोने -कोने बिखर रहा लोक -संगीत का सुर ....ये सब महसूस करना हो तो आपको तिलवाडा ग्रामीण मेले की पुराने पन्ने पलटने होंगे . तब से लूनी के सूखे पात में पानी तो ज्यादा नही बहा , परन्तु ग्रामीण जीवन के देसी रंगों में टेक्नोलॉजी के रंग जरूर घुलने लगे हैं . इस साल यहाँ मेला तो लगा पर लोगों की कम होती रूचि ने कई माथो पर चिंता की लकीरें छोड़ दी.
ज़मीनी हकुईकत पर पहुचने से पहले आइये थोड़ा इतिहास और आंकडो में झाँक लें . मीडिया और पर्यटन पुस्तिकाओ में आप तिलवाडा पशु मेले का ज़िक्र मरू प्रदेश के सबसे बड़े मेले के रूप में पायेंगे . भले ही ऊँटो के ब्यूटी पार्लर के चर्चे हो , भारी -भरकम बोली के साथ बिकने वाले मालानी नस्ल के घोडों की बात हो या की असली थारपारकर नस्ल की गाय के दर्शन हो ... तिलवाडा ने हमे कई कहानिया दी हैं .
ग्रामीणों के अनुसार , इस मेले की शुरुआत १३७४ इस्स्वी में लोक -नायक का दर्जा पा चुके राओ मल्लिनाथ द्वारा हुयी . उन दिनों मर्वर और आस -पास की रियासतों के उम्दा नस्ल के पशुओं की खरीद -बेचान का ये सबसे जाना -माना केन्द्र बन गया . हर वर्ष चैत्र सुदी एकादशी से शुरू होने वाला ये मेला १५ दिनों तक लगता हेई . पर हकीकत में अब छाते दिन से ही मेला सिमटना शुरू हो जाता है . मेले के सातवें दिन कुल जामा १५ -२० ऊँटो की तरफ़ इशारा करते हुवे स्थानीय निवासी मान सिंघ कहते हैं , “आज -कल तक ये भी अपने गावो का रुख कर लेंगे .”रोचक पहलु तो ये हेई की मान सिंघ और दूसरे ग्रामीण मेले की मंद होती ‘मादकता ’ के लिए ‘मोबाइल ’ फ़ोन के बढ़ते इस्तेमाल को जिम्मेदार ठहराते हैं . उनके अनुसार , “वो ज़माना और था जब आपको घोड़ा , गाय या ऊँट बेचना हो तो आप मेले तक इंतज़ार करते थे और सैकडो किलोमीटर से पशुवो को तिलवाडा तक ले कर आते थे . अब तो सरकार ने छोटे छोटे गाँव में भी हर हाथ में ये खिलौना ( मोबाइल ) पकड़ा दिया है. पशु-पलक आपस में संपर्क में रहते हैं और सौदा patne पर गाँव में बैठे बैठे ही तय कर लेते हैं .”
मेला -स्थल के पास चारे की दूकान पर हो रहे झगडे और लाठी -बाज़ी की तरफ़ इशारा करते हुवे हरी सिंघ कहते हैं की राजे -रजवाडों के समय में राजपूतों द्वारा मेले की सुरक्षा का ज़िम्मा उठाया जाता था . अब सामाजिक व्यवस्था के ताने -बाने उतने मजबूत नही रहे और मेले मैं खरीददारी के लिए आने -वालों को यहाँ या फिर रास्ते में लुटने का दर भी रहता है .
ग्रामीण प्रकृति के संकेतो को अक्सर अपने आस -पास घटने वाली असामान्य घटनाओ से जोरकर देखते हैं . आम दिनों में कई मीटर तक सूखी रहने वाली लूनी नदी मेले के दौरान ग्रामीणों के कोतुहल का विषय बन जाती है . लगभग ७ फीट गहरे ताजे -खुदे घद्धे में से मवेशियों के लिए पानी निकलते जगदीश इस कौतुहल को स्पष्ट करते हैं . “मेले के दिनों में आप को यहाँ थोड़ा -सा खोदने पर ही मीठा पानी मिल जाता है . ये सब मल्लिनाथ जी की कृपा है .”
हालाँकि अब ग्रामीण थोड़े दुखी भी हैं क्योंकि पास ही स्थित टेक्सटाइल नगरी बालोतरा से निकलने वाले प्रदूषित पानी का रेला लूनी नदी की सुखी छाती पर मेला स्थल से हो कर ही निकालता है और कई बार तो कुछ हाथ गहरे उन ‘चमत्कारी गड्ढों में भी मिल पानी निकल आता है .”
अपनी मुछो के किनारों को उमेठते हुवे भाले सी नुलीली बनते मान सिंघ कहते हैं , “फोटो खीच लो गाँव के इस मेले से अब आपको मुछे भी गायब होती नज़र आएँगी । मुछो की ज़गह मोबाइल आ गए , मल्लिनाथ -मेले के कुवो में मैल आने लगा है और थोड़े दिनों में मेले की जगह मॉल आ जायेंगे .” .... बात में दम है !



- अयोध्या प्रसाद (लेखक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक मामलों के जानकार हैं )

1 comment:

Anonymous said...

very interesting article. Good to see Mr. Shankar sharing his blog